SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तुमही अनन्त जन्तु का भय भीर निवारा । वेदों-पुराण में गुरु गणधर ने हम आपकी शरणागति में आके तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष ईक्षु उच्चारा ॥ प्रमु-भक्त व्यक्त जक्त भुक्त मुक्त के आनन्द कन्द वृन्द को हो मुक्ति के मोहि दीन जान दीनबन्धु पातकी ससार विषम अन्तर तार-तार पुकारा । अहारा ॥ हे दीन० ॥ २४ ॥ दानी । दानी ॥ मानी । यामी ॥ हे दीन० ॥ २५ ॥ करुणानिधान दास को अब क्यों न निहारो । दानी अनन्त दान के दाता हो सम्भारो ॥ वृष चन्द नन्द वृन्द का उपसर्ग निवारो । ससार विषमक्षार से प्रभु पार उतारी ॥ हे दीनबन्धु श्रीपति करुणा निधानजी । अब मेरी व्यथा क्यों न हरो वार क्या लगी || हे दीन० ॥ २६ ॥ वर्णी वाणी की डायरी से "किसी को मत सताओ" यह परम कल्याण का मार्ग है। इसका यह तात्पर्य है कि जो पर को कष्ट देने का भाव है वह आत्मा का विभाव भाव है, उसके होते ही आत्मा विकृत अवस्था को प्राप्त हो जाती है और विकृत भाव के होते हो आत्मा स्वरूप से च्युत हो जाती है, स्वरूप से च्युत होते हो आत्मा नाना गतियों का आश्रय लेती है और वहाँ नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करती है; इसका नाम कर्म फल चेतना है । कर्मफल चेतना का कारण कर्म चेतना है, जब तक कर्म चेतना का सम्बन्ध न छूटेगा इस ससार चक्र से सुलझना कठिन ही नहीं, असम्भव है ।
SR No.010455
Book TitleJain Pooja Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages481
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy