________________
जयमित्र सकल जगके सुमित्र, अनगिनत अधम् कीने पवित्र । जय चंद्र-वदन राजीव-नैन, कबहूं विकथा वोलत न चैन । जय सातौ मुनिवर एक संग, नित गगन-गमन करते अभंग। जय आये मथुरापुर मझार, तह मरी रोगको अति प्रचार। जय जय तिन चरणनि कोप्रसाद,सबमरी देवकृत भई वाद। जयलोक करे निर्भय समस्त,हमनमत सदा नित जोड़ हस्त। जय ग्रीषम-ऋतुपरवत मॅझार, नित करतअतापनयोगसार । जय तृषा-परीषह करत जेर, कहं रंच चलत नहिं मन-सुमेर।। जय मूल 'अठाइस गुणन धार, तप उग्र तपत आनंदकार । जय वर्षा-ऋतुमें वृक्ष-तीर, तह अति शीतल झेलत समीर।. जय शीत-काल चौपट मझार, कैनदी-सरोवर-तट विचार। जय निवसत ध्यानारूढ़ होय, रंचकनहिं मटकत रोम कोय।, जय मृतकासन वज्रासनीय, गोदूहन इत्यादिक गनीय । जय आसन नानाभांति धार, उपसर्ग सहत ममता निवार । जय जपत तिहारो नाम कोय, लख पुत्रपौत्र कुल-वृद्धि होय। जय मरे लक्ष अतिशय भंडार, दारिद्रतनो दुख होय छार ! जय चोर अग्नि डाकिन पिशाच,अरु ईति भीति सवनसतसांच। जय तुमसुमरत सुख लहत लोक, सुर असुरनवत पद देतधोक ।
ये सातों मुनिराज, महातप लछमी धारी। प्रम पूज्य पद धरौं, सकल जगके हितकारी ॥ जो मन वच तन शुद्ध, होय सेव औ ध्यावे । सो जन 'मनरंगलाल', अष्ट ऋद्धिनको पावै ॥ नमन करत चरनन परत, अहो गरीयनिवाज । पंच परावर्तननितें, निरवारो ऋषिराज || ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ॥