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तापै धरि तेईस जजौं शिर नायक।
कञ्चन थाल मझार जलादिक लायक ॥ ही योगसम्बन्धी सारासी लाख सत्तान हजार तेईस श्रीजिगचेत्यालयेभ्योson वसुकोटि छप्पन लाख ऊपर, सहस सत्यानवे मानिये । सत चारपै गिनले इक्यासी, भवन जिनवर जानिये ॥ तिलोक भीतर सासते, सुर असुर नर पूजा करें। तिन भवनको हम अर्घ लेक, पूजि जग दुःख हरें ।
हीनीला मान्या आठ कोटि उपन लाख सत्यानय हजार चारसो शम्वासी अनिमजिनदत्यालयेभ्यो अर्घ निर्यपग्मीनि स्वाहा। दोहा- अब वरणों जयमालिका, सुनो भव्य चितलाय । जिन-मन्दिर तिलोकके, देहुँ सकल दरशाय ॥१॥
पदडी छन्द ।। जय अमल अनादि अनन्त जान, अनिमित जु अकीर्तम अचल थान। जय अजय अखण्ड अरूप धार, पद्रव्य नहीं दीसै लगार ॥२॥ जय निराकार अविकार होय, राजत अनन्त परदेश सोय । जे शुद्र मुगुण अवगाह पाय, दश दिशा मांहि इहविधि लखाय ॥३॥ यह भेद अलीफाफाम जान, ता मध्य लोक नभ तीन मान । स्वयमेव बन्यो अविचल अनन्त, अविनाशि अनादिजु कहत सन्त ॥४॥ गुरुपायाकार ठाढो निहार. कटि हाथ धारि ? पग पसार । दक्षिण उत्तर दिशि सबै ठोर, राज जु सात माख्यो निचोर ॥५॥ जय पूर्व अपरदिश गट बाधि, सुने कथन कहूं ताको जु साधि । लसि पतले राजू जु सात, मधिलोक एक राजू रहात ॥६॥