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जन पूजा पाठ सप्रह
उच्छवसहित चतुरविधि, सुर हरषित भये । जोजन सहस निन्यानवै, गगन उलंधिगये ॥८॥ लघि गये सुरगिरि जहा पाण्डुक, वन विचित्र विराजहीं। पाण्डुक-शिला तह अर्द्धचन्द्र समान, मणि छवि छाजहीं।। जोजन पचास विशाल दुगुणायाम, वसु ऊंचों गनी। वर अष्ट-मङ्गल कनक कलशनि, सिंहपीठ सुहावनी॥८॥ रचि मणिमण्डप शोभित, मध्य सिंहासनो। थाप्यो पूरव-मुख तह, प्रभु कमलासनो ।। बाजहिं ताल मृदङ्ग, वेणु वीणा घने । दुन्दुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जुबाजने ॥६॥ बाजने वाजहिं शची सव मिलि, धवल माल गावही । पुनि करहिं नृत्य सुराङ्गना सब, देव कौतुक घावहीं॥ मरि क्षीर-सागर जल जु हाथहि, हाथ सुरगिरि ल्यावहीं। सौधर्म अरु ईशान इन्द्र सु कलश ले प्रभु न्हावहीं ॥९॥ वदन उदर अवगाह, कलशगत जानिये । एक चार वसु योजन, मान प्रमानिये ॥
सहस-अठोतर कलशा, प्रभु के शिर ढरै। , पुनि श्रङ्गार प्रमुख, आचार सबै करें ॥१०॥
करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छव, आनि पुनि मातहिं दयो। धनपतिहि सेवा राखि सुरपति, आप सुरलोकहिं गयो।। जनमामिषेक महन्त महिमा, सुनत सब सुख पावहीं। मणि 'रूपचन्द्र' सुदेव जिनवर, जगत मङ्गल गावहीं ॥१०॥