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हला जन्म
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वामी-मालिक का इशारा पाते ही धर्म का परित्याग कर विधर्मी बन जाते है । सदैव अतप्त रहने वाले उदर की पूर्ति करने के गयत्न में धर्म का नाश करने वालों की संख्या आजकल कम नहीं है । उन्हें इतना भी विचार नहीं पाता कि जीवन की रक्षा धर्मकी आराधना करने के लिए की जाती है। जो जीवन धमहीन है उसकी रक्षा करने से लाभ ही क्या है ? जीवन तो मिलता ही रहता है, और प्रत्येक जीवन के साथ पेट भी प्राप्त होजाता है पर धर्म इतना सस्ता नहीं है। वह रो प्रकृष्ट पुण्य के योग से ही प्राप्त होता है। जीवन, तन-धन आदि धर्म के लिए न्योछावर किये जा सकते है। इस प्रकार विचार न करके मोही जीव इस पेट के लिए अपना अमूल्य रत्न-धर्म बेच डालते हैं। अनेक शिक्षा-संस्थाओं के संचालकों द्वारा यह शर्त लगायी जाती है कि यदि तुम अपने धर्म का परित्याग कर हमारे धर्म को अंगीकार करो तो तुम्हारी शिक्षा की यहां व्यवस्था हो सकती है। विद्यार्थी बेचारे अनन्यगति होकर ऐसी शर्त स्वीकार करलेते है।परन्तु यह भी एक गंभीर भूल है । जिस विद्या के लिए धर्म का परित्याग करना पड़ता है वह कभी उपादेय नहीं है । कुज्ञान, अज्ञान से भी अधिक भयंकर होता है। ज्ञान का अभ्यास आत्मिक विकास के लिए करना चाहिए और आत्मिक-विकास धर्म की आराधना के द्वारा ही सभव है।
महिला-वर्ग की तो आजकल दशा ही निराली है। अनेक सम्भ्रान्त कुलों की महिलाएँ भी पुत्र प्राप्ति के हेतु अथवा पति को अपने आधीन बनाने के लिए न जाने कितनी विडम्बनाएँ करती हैं। वे भैरों, भवानी, भोपा, वाजिया, पीर-फकीर, वावा, जोगी. सन्यासी, और न जाने किन-किन के पास भटकती