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पाश्वनाथ
भी विराजते है, उनके संबंध में इन्होंने कुछ भी नहीं कहाउनका स्मरण भी नहीं किया और रेवती रानी को धर्मवृद्धि का सदेश भेज रहे है। इसमे क्या रहस्य है १ हजी के मन में किसी प्रकार का राग द्वेप तो नहीं है ? खैर, वहां चलें और इस रहस्य का पता लगाएँ । इस प्रकार शंकाशील होता हुआ विद्याधर वहा से रवाना हुआ। मथुरा पहुँचा और सुव्रत मुनि की सेवाम उपस्थित हुआ। उसने यथाविधि वन्दना की, उपदेश सुना और अंत मे वहा से विदा होकर भन्यसेन मुनि के पास पहुँचा ! वे उस समय शौच-निवत्ति के लिए बाहर जा रहे थे । वह विद्याधर भी उन्हीं के साथ हो लिया ! उसने सोचा-देखें, इनका महा. व्रतों के प्रति कैसा भाव है, किस सीमा तक यह उनका पालन करते है । इस प्रकार सोच कर विद्याधर ने अपने विद्यावल के द्वारा मुनि मन्यसेन के मार्ग मे सब्जी-ही-सब्जी फैला दी और श्राप स्वयं कहीं एक ओर छिपवर ठ रहा । मुनिराज उसी मार्ग से गमन करते दिखाई पड़े । वे हरितकाय देख कर भी दूसरे मार्ग से जाने को उद्यत न हुए। और अन्त मे हरितकाय को कुचलकर भागे चले गये । विद्याधर उनका यह शाल-बाह्य व्यवहार देख कर विस्मिन हुआ। अब उसे विदित हुत्रा, कि गुरु महाराज ने भव्यसन जी का स्मरण क्यों नहीं किया था ? वास्तव में वे चारित्र-भ्रष्ट थे। वेप से मुनि होकर भी भाव से नुनि न थे।
विद्याधर ने सोचा-चलो लगे हाथों रेवती रानी की भी परीना कर लें । वह परीना के लिए चल दिया। उसने नगर के फाटक पर जार एक ऐसारूप बनाया, कि दुनिया उसे देखने दौड़ पी। पर यमपरायण रेवती रानी उसे देखने न आई। दूसरे दिन