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पार्श्वनाथ
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टाल देना ही उचित समझा।
संयोगवश कुछ ही दिनों में लोकचन्द्र नामक एक ज्ञान और चारित्र के धारी मुनिराज अपने शिष्य-वृन्द के साथ विचरते हुए उधर आ निकले। वे नगर से बाहर एक उद्यान मे ठहरे । मुनिराज के शुभागमन का वृत्तान्त जब नगर मे पहुंचा तो जनता की टोलियां की टोलियां मुनिराज के पावन दर्शन और हितकारी सदुपदेश को श्रावण करने के निमित्त उमड़ पड़ी। महाराज वज्रवीर्य भी यवराज बज्रनाभ और कुबेर को साथ लेकर मुनिराज की शरण मे पहुँचे । सब लोग यथाविधि वन्दन-नमन कर यथास्थान वैठ गये। मुनि महाराज ने उपदेश देना आरंभ किया। बोले___ भव्यो, आत्मा स्वभाव से सिद्ध, बुद्ध और ज्ञानादि गणो से समृद्व है, किन्तु इसकी परिणति विभाव रूप हो रही है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनोय, मोहनीय, आय, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन आठ कर्मों के कारण बंधन में बंधा हुआ यह आत्मा, संसार से अर्थात् नाना योनियो मे जन्म-मरण के तथा अन्यान्य प्रकार के घोर कष्ट सहन कर रहा है। रंक हो या राजा, सधन हो या निर्धन, सवल हो या निर्बल, कुलीन हो या अकुलीन, सभी को समान रूप से कर्म, पीड़ा पहुँचाते है। इनका शासन निष्कंटक है, कोई उसका अपवाद नहीं है। प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। परन्तु चष्टि विकृत होने के कारण प्रयत्न विपरीत करता है । सांसारिक पदार्थों मे सुख की गवेपणा करने से परिणाम मे दुःख ही प्राप्त होता है। सचा सुख तो आत्मा मे ही विद्यमान है। सुख, आत्मा का ही एक अस्तित्व रूप गुण है । अत वह आत्मा को छोड़ कर अन्यत्र नहीं रह सकता । अतएव सच्चे सुख के