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पार्श्वनाथ
, - राजा करणवेग घर लौट आया और अपने पुत्र युवराज धर
णवेग को राज-काज सौप कर, यथायोग्य शिक्षा देकर, प्रजा से विदाई लेकर पुनः आचार्य श्री की सेवा मे आ उपस्थित हुआ। मुँह पर मुँहपत्ती बांधी। चोलपट्ट पहना । चादर ओढी। कांख में रजोहरण दबाया। हाथ मे पात्रों की झोली लेली । इस प्रकार साधु वेष धारण कर के गरुदेव को यथाविधि वन्दना की, नमस्कार किया । गुरुदेव ने आजन्म पंच महाव्रत पालन करने की प्रतिज्ञा कराई और दीक्षित कर लिया। दीक्षित होने के अनन्तर मुनि करणवेग गुरु-सेवा में तन्मय हो गये । विनयपूर्वक ज्ञान सम्पादन किया । फिर कम-रिपुओं का संहार करने के लिए तपस्या की तलवार संभाली । पारणे के दिन कठिन अभिग्रह करते रहे । इस प्रकार उग्रतर तपस्या करने के कारण करणवेग मुनि का शरीर कृश हो गया। __एक बार करणवेग मुनि अपनी लब्धि के बल से विचरते हुए उसी भयंकर वन मे स्थित हेमगिरि पर्वत पर जा पहुंचे, जहां । कमठ का जीव मर कर कुर्कट जाति के सयंकर विषैले सांप के रूप मे उत्पात मचा रहा था। उसका विष इतना उग्र था कि उसकी फुकार से ही आस पास की घास और वक्ष सख गये थे। उसी जंगल मे पहुँच कर करणवेग मुनि (भावी पार्श्वनाथ) ने कायोत्सर्ग किया । वे निश्चल शरीर और निश्चल मन से ध्यान मे मग्न हो गये। वह सॉप वहां आया और सरसराता हुआ मुनि के शरीर पर चढ़कर उससे लिपट गया। फिर ऐसे जोर से डंक मारा कि मुनि का समस्त शरीर विप से व्याप्त हो गया। किन्तु प्रथम तो मुनि ध्यान-मग्न थे, फिर प्राणान्तक उपसर्ग आ गया। अतः उन्होंने आत्म-ध्यान से तनिक भी विचलित न होते