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दूसरा जन्म
हाथी सूखी पत्तियां खाकर भला-भटका पानी पीने के निमित्त उधर जा पहुँचा । उसे पता नहीं था कि उसका पूर्वजन्म का सहोदर विषधर सपे बन कर यहीं त्राहि-त्राहि मचा रहा है। वह पानी पीने के लिए सरोवर में उतरा । कीचड़ को अधिकता के कारण और तपस्या से दुर्बल होने के कारण वह कीचड़ में फंस गया
और निकलने में असमर्थ हो गया। सर्प लहराता हुआ हाथी के समीप आया। हाथी को देखते ही वह मानों जल उठा और उछल कर उसके कुम्भ-स्थल पर ऐसा डक मारा कि पलभर में सारा शरीर विष से व्याप्त होगया । हाथी ने अपने जीवन का अवसान जान अनशन धारण कर लिया और शरीर के प्रति भी ममता का परि. त्याग कर समता के सरोवर में अवगाहन करने लगा। उसने विचार किया-अरिहंत भगवंत मेरे देव है, निग्रंथ मेरे गुरु हैं
और जिनेन्द्र-प्रणीत धर्म ही मेरा धर्म है। जन्म-जन्मान्तरों मे मेरी श्रद्धा इसी प्रकार की स्थिर रहे, यही मेरी अन्तिम भावना है।' उसने अठारह पापों का त्याग कियां और मनोयोग से संसार के समस्त जीवो से क्षमा प्रार्थना की और अपनी ओर से सबको क्षमा दान दिया। उसने सर्प के प्रति भी क्रोध का भाव न रहने दिया । सोचा संसार में प्रत्येक प्राणी कर्मों के साम्राज्य मे निवास करता है । जो कुछ शुभ या अशुभ, सयोग या वियोग, हानि या लाभ होता है कर्मों के कारण ही होता है। अन्य प्राणी या वस्तु तो कर्मों का हथियार है, निमित्त मात्र है । यथार्थ में तो कर्म ही सुख-दुख के कारण है। मुझे सर्प ने काटा है पर सर्प तो असातावेदनीय या आय कर्म का निमित्त कारण है । यदि असातावेदनीय का उदय न होता अथवा आयु का अन्त न आगया होता तो बेचारे सपे की क्या शक्ति थी,लो मेरे रोम का भी म्पर्श करता।