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________________ ३२ पार्श्वनाथ संसार के सुख साधनों में कहां ? साधु अपनी इन्द्रियों और मन पर सदैव अंकुश रखता है। वे विषयों की ओर कभी आकृष्ट नहीं होते । मुनि समस्त कामनाओं पर विजय प्राप्त करता है अतएव कामनाओं की पूर्ति के लिए उसे प्रयास ही नहीं करना पड़ता । अन्तरात्मा में आनन्द का जो असीम और अक्षय समुद्र लहरा रहा है उसमें अन्तर्दृष्टि महात्मा ही अवगाहन कर सकते है ! उसमें एक बार जिसने श्रवगाहन किया वह संसार के उत्कृष्ट से उत्कृष्ट समझे जानेवाले सुखों को तुच्छ और नीरस समझ कर उनकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देख सकता । - I थोड़ी देर के लिए बाह्य दृष्टि से यह मान लिया जाय कि तुमने साधुवृत्ति के जिन कष्टों का दिग्दर्शन कराया है वे वास्तविक हैं, तो भी इस आत्मा ने विपयों के वश होकर अनादिकाल से जो घोर वेदनाऍ सहन की है उनकी तुलना में यह कष्ट बिलकुल नगण्य है । नरक की रोमाञ्चकारिणी व्यथाऍ अनन्त वार इसी आत्मा ने भुगती हैं । तिर्यञ्च गति की प्रत्यक्ष प्रतीत होने वाली यातनाएँ इसी श्रात्मा ने सहन की है। तो क्या यह आत्मा इन थोड़ी-सी वेदनाओं को सह न सकेगा ? देवियो मन की कायरता तिल को ताड़ बना देती है ! धर्म की आराधना सुखमय है' और ' सुख का कारण भी है । धर्म ही सच्चा सखा है । वहीं शाश्वत कल्याण का जनक है । इस विशाल विश्व मे धर्म के अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जिसका शरण जन्म-मरण के कारण उत्पन्न होने वाले दुःखों से मुक्त कर सकता हो । अतएव पूर्वोपार्जित प्रबल पुण्य के परिपाक से मुझ मे जो प्रशस्त परिगाम उत्पन्न हुआ है उससे तुम्हें भी प्रसन्न होना चाहिए और मेरे श्रेय-मार्ग मे सहायक बन कर अर्धाङ्गिनी पद की मर्यादा -
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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