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दूसरा जन्म
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धधक उठा। वह प्राणों का प्यासा तो पहले से ही था । उपयुक्त अवसर देख कर उसने पास में पड़ी हुई शिला उठाकर मरुभूति के माथे में दे मारी। शिला का प्रहार होते ही मरुभूति का मस्तक चूरा-चूरा हो गया । अन्त में तीव्र वेदना के साथ उसके जीवन का अन्त हो गया ।
द्वितीय जन्म
मरुभूति मनुष्य पर्याय का परित्याग कर विन्ध्याचल पर्वत की गुफाओं में रहने वाले हाथियों के यूथ में हाथी हुआ । उसकी आकृति अतीव आकर्षक थी । उसके सभी अंगोपांग मनोहर और दर्शनीय थे । उधर कमठ की स्त्री का देहान्त हुआ और वह भी इसी हस्थी - यूथ में एक हथिनी के रूप मे उत्पन्न हुई ।
पोतनपुर के महाराज अरविन्द आनन्द के साथ कालक्षेप करते हुए एक दिन झरोखे मे बैठकर नैसर्गिक दृश्य देख रहे थे । आकाश मंडल चहुँ ओर रंग-विरंगे मेघों से आच्छादित हो रहा था । मेघों के बीच-बीच में कभी-कभी बिजली चमक उठती और दूसरे ही क्षरण वह शून्य में विलीन हो जाती थी । सघन मेघ घटाएँ मानों आकाश को मढ़ देना चाहती थीं । राजा अरविन्द यह दृश्य देख ही रहा था कि अचानक समय ने पलटा खाया। कुछ ही क्षणो के पश्चात् वायु के प्रबल थपेड़ों से मेघ तितर-बितर हो गये । देखते-देखते वही आकाश, जो सघन घनघटाओं से मढ़ा हुआ दिखाई देता था और जिसमे चंचल विद्युत दौड़धूप मचा रही थी, एकदम स्वच्छ और नंगा सा दिखाई पड़ने लगा । पहले का दृश्य अदृश्य हो गया । मेघो की अनित्यता