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पहला जन्म
पवित्र समझा जाता है पर क्रोध-चाण्डाल जब हृदय रूपी आगार में प्रवेश करता है तो कई जन्मों को अपवित्र कर डालता है।
एक बार एक पंडित जी स्नान-संध्या से निवत्त होकर नगर के एक तंग रास्ते से जा रहे थे। ठीक उसी समय एक महतरानी सामने से आ रही थी। पंडित जी उस पर दृष्टि पड़ते ही बिगड़े
और गालियों की बौछार करने लगे। महतरानी धीरे धीरे पीछे हटती हुई बाजार में आ गई। उधर पंडितजी के क्रोध का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। उनकी बकझक सुन कर भीड़ इकट्ठी हो गई । महतरानी ने पंडित जी का पल्ला पकड़ कर कहा, 'चलिए, अपने घर चले। आप मेरे पति और मै आपकी पत्नी हूँ।' लोगों ने यह सुना तो स्तम्भित रह गये । परस्पर कानाफूसी
और इशारेबाजी होने लगी। किसी ने कहा-'देखो, आज यह पोल खुली है । कुछ न कुछ दाल में काला अवश्य है। महतरानी निष्कारण तो यों नहीं कह सकती।' अब पंडितजी का दिमाग ठिकाने आया । वे कुछ शान्त होकर वोले-'परी तू यह क्या तमाशा कर रही है ? मैं कब तेरा पति वना हूं ? त पागल तो नही हो गई है ? क्यो मेरी इज्जत धूल मे मिला रही है ? क्यों यह कलंक मेरे माथे थोप रही है ? भला, ये सुनने वाले लोग अपने मन से क्या समझेगे ? पण्डितजी का यह कहना था कि महतरानी उनका पल्ला छोड़ कर अपना रास्ता नापने लगी। पंडितजी फिर बोले-'महतरानी बाई, आखिर अब यकायक क्यों चलदी ? अपनी वातों का मर्म तो समझाए जा! तूने क्यों मेरा पल्ला पकड़ कर मुझे अपना पति बनाया
और अब चुपचाप क्यों खिसकी जाती है " महतरानी ने कहापंडितजी महाराज, जब आप क्रोध के वश मे हो गये थे, उसके