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________________ परिशिष्ट २६६ परिशिष्ट भगवान् पार्श्वनाथ का विक्रम सम्वत् पूर्व ७२० में निर्वाण होने के पश्चात् उनके पद पर उनके प्रधान शिष्य गणधर शुभदत्त विराजमान हुए । गणधर श्री शुभदत्त के अनन्तर श्री हरिदत्त, श्री आर्य समुद्र और अन्त में आचार्य श्री केशी श्रमण पद पर सुशोभित हुए। श्री केशी श्रमण भगवान् पार्श्वनाथ के पाट पर विराजते थे, तब श्री वीर भगवान का आविर्भाव हो चुका था । सुप्रसिद्ध सूत्र श्री. उत्तराध्ययन में गौतम स्वामी और केशी श्रमण के प्रश्नोतरों का उल्लेख पाया जाता है । इन प्रश्नोत्तरों के आधार पर कुछ विद्वानों ने अनेक प्रकार के भ्रम फैलाने का प्रयत्न किया है । कुछ लोगों का कथन है, कि भ० पार्श्वनाथ और भ० महावीर की परम्परा भिन्न-भिन्न थी । इस सम्बन्ध मे हमने इस ग्रन्थ की आदि में थोड़ा-सा विचार किया है । यहां भी इसका स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है, जिससे वास्तविकता का पता सर्व साधार को चल सके । प्रत्येक तीर्थकर केवलज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् सर्वज्ञ होने पर ही धर्म का उपदेश देते है, और दो सर्वज्ञों का एक ही विषय का कथन, परस्पर विरोधी नही हो सकता। क्योंकि सत्य अखंड है, अविरुद्ध है । उसमें विरोध का अवकाश नहीं है । भ० पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी सर्वज्ञ थे । अतएव उनके कथन विरोधी नहीं हो सकते । तीर्थंकर भगवान् आत्मा के राग, द्वेष, मोह और अज्ञान आदि दोषों को नष्ट करने का तथा वस्तु को वास्तविक रूप का उपदेश देते हैं । इस उपदेश में सामयिक परिस्थिति का भेद भी
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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