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पार्श्वनाथ को धारण करने में असमर्थ हैं। उन्हें देशविरति रूप श्रावक धर्म अवश्य ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि मुक्ति रूपी महल पर पहुचने के लिए अनेक सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती है। जो एक दम ऊंची सीढ़ी पर आरूढ़ नही हो सकते, उन्हे नीचे सीढ़ी पर आरुढ़ हो कर उन्नति करनी चाहिए । प्रत्येक सीढ़ी जैसे सहल की ओर ही ले जाती है, उसी प्रकार क्या देशविरति और क्या सर्वविरति दोनो मुक्ति की ओर ले जाती है । श्रावक-धर्म का निर्दोष भाव पूर्वक पालन करने वाला भव्य प्राणी भी सात-आठ भवों मे मुक्ति कामिनी का कमनीय कान्त बन जाता है। इस प्रकार का गणधर महाराज का उपदेश सुन कर अनेक मुमुक्षुओ ने श्रावक-धर्म धारण किया। अनेको ने प्रकीर्णक व्रत-नियम स्वीकार किये। आर्यदत्त का उपदेश सुन कर श्रोत समूह अपने अपने स्थान पर चला गया।
चरणेन्द्र और पद्मावती भी उस समय अपनी देविक सम्पत्ति के साथ प्रभु की सेवा से उपस्थित हुए। प्रभु को यथाविधि प्रणाम कर धरणेन्द्र वोला-'हे दीनानाथ । आपकी महिमा अपरम्पार है । आपका वास्तविक स्वरूप व्यक्त करने की मुझ मे जरा भी क्षमता नहीं है। आप अनन्त ज्ञानी, अनन्त दर्शनी अनन्त शक्ति सम्पन्न और अनन्त आत्मीय सुख के सागर हैं। ह प्रभो! आप पतितो के अनन्य आश्रय है। आपके पावन पादपद्म के प्रसाद से पतित-से-पतित प्राणी भी परम पद का आस्पद बन जाता है। श्रार तीन लोकों मे श्रेष्ठ है। समस्त संसार के पजनीय परुपोत्तम है। सुर-असुर इन्द्र-अहमीन्द्र सभी आपके सेवक है । मभी आपके चरणो मे नतमस्तक रहते हैं । आपने कदोर तपस्या कर के 'प्रात्मिक सम्पत्ति की पूर्ण अभिव्यक्ति की