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________________ २३२ पाश्वनाथ maaaaa भावना को अंक स्थानीय । जैसे अंक-रहित शून्यों का कुछ भी महत्व नहीं है। उसी प्रकार भाव-रहित दान आदि भी वृथा हैं। अंक के साथ शन्य जोड़ देने पर अंक महत्व बढ़ जाता है और भाव के साथ दान आदि हो, तो भाव का महत्व बढ़ जाता है। जिसका अन्तःकरण सद्भावना से भावित है। वह भवन में रहे या वन में रहे गृहस्थ-वेषी हो या साधु-वेपी हो, पुरुष हो या स्त्री हो, कोई और कैसा भी क्यों न हो, मुक्ति उसे अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। भावना की महिमा अनिर्वचनीय है। मरुदेवी ने भावना के प्रताप से हाथी के हौदे पर बैठे-बैठे मुक्ति पाई और चक्रवर्ती भरत ने काच भवन के भीतर ही केवलज्ञान प्राप्त कर परम पल्पार्थ की सिद्धि की। सनभावना का इससे अधिक महत्व क्या हो सकता है। भद्र जीवो। अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार इस मोक्ष की अाराधना करो । जिसका आचरण करना शक्य न हो, उस पर अद्धा अवश्य रक्खो। श्रद्धावान व्यक्ति भी शनैः शनैः अजर अमर पद प्राप्त कर लेता है।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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