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पहला जन्म
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मे पहना हुआ हार उतार कर उन्हें दे दिया । सज्जन की फिर वन आई। वह फिर राजा के पास दौड़ा गया। राजा ने अव की वार कुमार को देश निकाले का दंड दे दिया । प्ररणवीर पुरुष घोर व्यथा उपस्थित होने पर भी अपने पथ से नहीं चिगते । ललितांग मन को मैला किये बिना ही राजा की आज्ञा के अनुसार निकल पड़ा । सज्जन भी साथ हो लिया। दोनों सुनसान वन मे पहुँचे । वहाँ सज्जन चोला — कुमार, हठ छोड़ो । मेरा कहना मानों -- भले का परिणाम बुरा ही होता है । पर कुमार यह भ्रान्त सिद्धान्त मानने को राजी न हुआ । अन्त मे सज्जन ने कहा- 'अच्छा चलो, किसी से निर्णय करालें । मैं जीत गया तो तुम्हारा अश्व,
भूषण और वस्त्र मै लेलू गा ।' कुमार ललितांग ने यह स्वीकार कर लिया। आगे बढ़े तो कुछ ग्रामीण मिले । उन से पूछा गया - बताओ भाई, भले का फल भला होता है या बुरा ? सव एक स्वर से 'बुरा' 'वुरा' चिल्लाने लगे । कुमार ने पूछा- कैसे ? वे बोलेयहाँ हमारे राजा आये थे । हमने अपनी शक्ति से अधिक व्यय करके उनका स्वागत किया। इससे संभवत: उन्होंने समझा -- ये लोग मालदार है । जाते समय हमारे ऊपर कर का और अधिक वोझा लाद गये । अतः यह स्पष्ट है कि भले का फल बुरा होता है ।
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कुमार हार गया । उसने अपना अश्व आदि सज्जन को सौप दिये । दुर्जन 'सज्जन' अव घोड़े पर सवार होकर ताने कसने लगा । पर कुमार अपने सिद्धान्त पर अब भी अचल था । सज्जन ने दूसरी बार निर्णय कराने की चुनौती दी । और अब की बार
ने वाले की निकालने की शर्त लगाई गई । कुमार ने यह भी स्त्रीकार किया । पर जव निर्णय दोबारा कुमार के विरुद्ध