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________________ उपसर्ग १६५ परित्याग करने पर यह उसी राजपुरी में ईश्वर नामक राजा होंगे। राजा की अवस्था में इन्हें भगवान पार्श्वनाथ के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त होगा। भगवान का पवित्र दर्शन होने से इन्हें जाति स्मरण ज्ञान प्राप्त होगा और उससे दत्तजी अप के वत्तान्त को जान लेगे।" राजा ईश्वर कहने लगे-' मंत्री जी । अब से तीसरे भव पहले मुनिराज ने अपने दिव्य ज्ञान में देखकर जिस भविष्य का कथन किया था, बह अक्षरशः सत्य सिद्व हुआ है। आज मुझे अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हो गया है। सच है-निग्रंथ मुनिराजों का कथन कभी मिथ्या नहीं हो सकता । वे परम ज्ञानी, परम संयमी और परम हितैषी होते है । धन्य है इन महापुरुषों को जो ससार के उत्तमोत्तम भोग्य पदार्थों को तिनके की भांति त्याग कर इस साधना को अंगीकार करते है । स्याद्वादमय धर्म भी धन्य है जो वस्तु-स्वरूप को यथार्थ निरूपण करके जनता की जिज्ञासा का उपशमन करता है, कल्याण का मार्ग प्रदर्शित करता है और अन्त मे समस्त दुखो से छुड़ाकर सर्व श्रेष्ठ सिद्धपद पर आसीन करता है।" इस प्रकार अपने आन्तरिक उद्गार निकाल कर राजा ने प्रभ को प्रसन्न और भक्तियक्त चित्त से वन्दना की और अपने महल मे लौट आया। उपसर्ग परम-पुरुप पार्श्वनाथ राजपुर से विहार कर आगे पधारे। उपनगर के बाहर तापसों का एक आश्रम था। जब भगवान् आश्रम के पास होकर पधार रहे थे तव सूर्यास्त होने लगा।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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