SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 121
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विहार १६१ दुर्गेधित हो गया था। घर वालों ने पहले तो उसकी तन-मन से सेवा की पर उसे निरोग न होते देख अन्त मे उनका जी ऊब गया । उसे भाग्य के भरोसे पर छोड़कर सब लोग अपने-अपने काम में लग गये। विद्वान ब्राह्मण के हृदय पर इस घटना ने तीव्र आघान किया। उसने जीवन को कष्ट-संकुल समझ कर मत्य का शरण लेना उचित समझा । सोच-विचार कर वह घर .. से निकल पड़ा। 'गंगा में मरने से सद्गति-लाभ होता है। इस लोक प्रवाद के अनुसार उसने अपना शरीर गंगा को अर्पण कर देने का विचार किया। वह गंगा के तट पर पहुंचकर कूद पड़ने का उपक्रम कर ही रहा था कि इतने में विहार करते हुए मुनिराज वहां आ पहुंचे। __ मनिराज ब्राह्मण की चेष्टाएँ देख उसके अन्तःकरण का भाव समझ गये। उन्होंने कहा- भाई ! क्यों यह अनर्थ कर रहे हो? आत्मघात करना घर पाप है । इस पाप मे फंसने वाला प्राणी भविष्य मे और अधिक दुःख पाता है दुःखों से मुक्त होने के लिए आत्मघात का मार्ग ग्रहण करना जीवन के लिए विषपान करने के समान और सौन्दर्य का निरीक्षण करने के लिए आंखें फोड़ डालने के समान विपरीत प्रयास है। दुःख अकस्मात पूर्वापार्जित अशुभ कर्मों के उदय के बिना नहीं होते । आत्मा उन कर्मों का उपार्जन करता है । अतः आत्मा के साथ ही कर्मों का बंध होता है तुम यह जानते हो, कि शरीर और आत्मा एक नहीं है। शरीर - का परित्याग कर देने पर भी पाप कर्म उपार्जन करने वाला आत्मा तो बना हुआ ही है । जब आत्मा विद्यमान रहेगा तो उसके साथ अशुभ कर्म भी विद्यमान रहेगे। शरीर का त्याग करने पर आत्मा जिस नवीन पर्याय को धारण करेगा उसी पर्याय में कर्म
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy