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________________ १७४ पाश्वनाथ उद्यमशील रहते है । वे सतत सावधान रहते हुए अपने योगो का निरीक्षण करते है और कब, कौन-सा भाव मन से उत्पन्न हुआ सा भली भाति ममझत है। यदि वह भाव अशुभ हुआ तो , उसके प्रतिपक्षी भाव को ग्रहण करके उसका उपशमन करते है। वे अविद्या या अज्ञान को, तत्त्वज्ञान के द्वारा निराकरण करते है और असंयम रूपी विप के उद्गार को संयम रूप अमृत से दूर करते है। जैसे चतुर द्वारपाल मलिन और असभ्य जनों को महल में प्रवेश नहीं करने देता उसी प्रकार समीचीन बुद्धि पापबुद्धि को नही प्रवेश करने देती। ___ प्रात्मा जब कल्पनाओ के जाल से मुक्त होकर, अपने वास्तविक स्वरूप मे मन को निश्चल कर लेता है तभी परम सवर की प्राप्ति होती है। (8) निर्जरा भावना जन्म-मरण के कारण भूत कर्म जिससे जीणे होते है वह निर्जरा है पूर्वबद्ध नानावरण आदि कर्मों का फल जब उदय में या जाता है वह कर्म झड जाते है। यही कर्मो का झडना निर्जग है। निर्जग दो प्रकार की है-(१) सकाम निर्जरा और (२) अकाम निर्जग । स्थितिपूर्ण होने स पहले तपस्या के द्वारा कर्मों का चिरना मनाम निजेगह और कर्म की बंधी हुई स्थि ताणे होने पर, फल देने के बाद, उस कर्म का खिरना अकाम निर्जग है । पाली निर्जग नपत्वी मुनियों को होती है और दूसरी चारों गतिनाममय जीयो को प्रति तण होती रहती है।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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