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________________ १७२ पार्श्वनाथ है जैसे चील, कौए और कुत्ते मुर्दे पर राग रखते है। जिन्होने शरीर पाकर उसे आत्म-कल्याण मे लगाया है वे महापुरुष धन्य है । उन्होंने अपवित्र शरीर से आत्मा का उद्धार किया है । हे भव्य जीव । त शरीर के कारण ही अब तक सव अनर्थों को भोग रहा है । शरीर ने ही तुझे नाना प्रकार की विप. दाओं का केन्द्र बनाया है। अब इस शरीर का धर्माचार मे प्रयोग कर । देह का यह पीजरा सदा रोगों का घर है, इसके रोमरोम मे रोग भरे है, सदा अशुचि का घर है और सदा पतनशील सब भावना मन, वचन और काय को योग कहते है । तत्त्वज्ञानी महा पुरुषो ने योग को ही पानव कहा है। जैसे समुद्र में जहाज छिद्रो से जल ग्रहण करता है उसी प्रकार जीव शुभाशुभ योगरूपी छिद्रो से कर्मों को ग्रहण करता है। प्रशम, सवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्तिक्य, नियम, यम, मैत्री प्रमोद, कारुण्य, मान्यस्थ आदि उत्तमोत्तम भावो से शुभ कर्मों का पात्रव होता है और कपाय रूप अग्नि से प्रचलित तथा इन्द्रिय विषयो से व्याकुल योग अशुभ कर्मों के आस्रव का कारण होता है। इसी प्रकार सासारिक व्यवहारोंस रहित,अत ज्ञान के अवलंबन से युक्त, सत्य रूप प्रमाणिक वचन शुभानव के तथा निन्दारूप, असन्मार्ग के प्ररूपक, असत्य, कठोर, अप्रिय वचन अशुभ आग्नव के कारण होते है। भली भॉति वशीभत किये हुए काय से तथा निरन्तर कायोत्सर्ग से शुभकर्म का तथा साना व्याणरा
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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