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________________ तापस-प्रतिबोध १५६ viv ^^^^) 150 तापस - कुमार, मैंने सुना था कि बनारस के राजकुमार बड़े धर्मात्मा है, बड़े न्यायपरायण हैं । जान पड़ता है मेरा सुनना मिथ्या था । आपने यहाँ आते ही बिना मुझसे कुछ पूछ-ताछे, विना समझे-बूझे सहसा फैसला कर दिया । फैसला करने से पूर्व अभियोगी को अपना वक्तव्य देने का भी अवसर नही दिया | क्या यही आपकी न्याय-निष्ठता है ? इसी प्रकार आप प्रजा का न्याय करेंगे ? आखिर बताइए तो कि मैं क्यों अधर्म आचरण कर रहा हॅू ? कैसे अनथ कर रहा हू ? किस प्रकार दूसरों को दुर्गति में लेजा रहा हूँ ? मै तापस हूँ तपस्या करना मेरा धर्म है । परम्परा से हमारे सम्प्रदाय में जो आचार-व्यवहार होता आ रहा है, मैं बड़ी तत्परता से उसका अनुष्ठान कर रहा हूँ । कुमार - मै चाहे नीतिपरायण होऊ चाहे अन्यायी होऊँ पर आपके विषय में मैने रंचमात्र भी अन्याय नही किया । यह ठीक है, कि आपसे उत्तर मांगे बिना ही मैने निर्णय कर डाला है, परन्तु मेरा निर्णय असंदिग्ध है, उसमे कुछ भी भूल नही है । आप जो आचरण कर रहे है, वह धर्मयुक्त है इसका आपके पास एक ही प्रमाण है । और वह यह कि परम्परा से वही आचार होता आता है । पर महाराज ! परम्परा से तो सभी कुछ चला आता है। हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार आदि दुराचार भी तो मानवसमाज मे आज से नहीं, कल से नहीं, किसी खाम समय से नहीं, बल्कि परम्परा से चला आ रहा है । क्या वह भी धर्म चार कहलायगा ? तापस-- मगर मेरे आचार मे आप क्या अधार्मिकता देख रहे है ? कुमार- आप हिंसा का घोर अनुष्ठान कर रहे है। हिमा
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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