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सो सत्य है, परन्तु इतना जानना सम्यक्त्ववी के व्यवहार सम्यक्त विषै निश्चय सम्यक्त्व गर्भित है सदैव गमनरूप है । बहुरि लिखी साधर्मी कहे है आत्मा को प्रत्यक्ष जाने तो कर्म वर्गणा को प्रत्यक्ष क्यो न जाने ।
सो कहिए है आत्माको प्रत्यक्ष तौ केवली ही जानें कर्मवर्गणाको अवधिज्ञानी भी जाने है । वहुरि तुम लिखा
द्वितीया के चन्द्रमा की ज्यो आत्मा के प्रदेश थोरे खुले कहा। ताका
उत्तर-
यह दृष्टान्त प्रदेशन की अपेक्षा नाही, यह दृष्टान्त गुण की अपेक्षा है । अर सम्यक्त्व विषे अनुभव विषे प्रत्यक्षादिक के प्रश्न लिखे थे तुमने, तिनका उत्तर मेरी बुद्धि अनुसार लिखा है । तुम हू जिनवानीते अपनी परणति से मिलाय लेना । अर विशेष कहा ताई लिखिये । जो बात जानिए सो लिखने मे आवे नाही | मिले कुछ कहिये भी सो मिलना कर्माधीन, ताते भला यह है कि चैतन्य स्वरूप की प्राप्ति के उद्यम मे रहना व अनुभव मे वर्तना सो वर्तमानकाल विषै अध्यात्म तत्व तो आत्मा ही है ।
तिस समयसार ग्रन्थ की अमृतचन्द्र आचार्यकृत टीका संस्कृत विप है अर आगम की चर्चा गोमट्टसार विषै है तथा और भी अन्य ग्रन्थ विषे है, सो जानी है, सो सर्व लिखने मे आवे नाहि । तातें तुम अध्यात्म आगम ग्रन्थ का अभ्यास रखना अर स्वरूप विषै मग्न रहना अर तुम कोई विशेष ग्रन्थ जाने होवे तो मुझको लिख भेजना । साधर्मी के तो परस्पर चर्चा ही चाहिए, अर मेरी तो इतनी बुद्धि है नाही | परन्तु तुम सारिखे भाइनसो परस्पर विचार है, सो अब कहा तक लिखिये । जेतै मिलना नही तेतै पत्र तो शीघ्र ही लिखा करो ।
मिती फागुन बदी 5 विक्रम स. 1811
- टोडरमल
उक्त चिट्ठी के अतिरिक्त सवत् 1811 का वर्ष मुलतान समाज के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण रहा। इसी सवत् मे किशनसिंह के क्रियाकोश की प्रतिलिपि की गयी । यह प्रतिलिपि भी जयपुर मे ही करायी गयी और फिर उसे मुलतान के शास्त्र भण्डार मे विराजमान किया गया । क्रियाकोश श्रावको की क्रियाओं का ग्रन्थ हैं । यह इस बात का भी द्योतक है कि मुलतान के जैन बन्धु क्रियाकोश मे प्रतिपादित क्रियाओ के पक्षपाती थे तथा उनकी जानकारी प्राप्त करना चाहते थे । क्रियाकोश के अतिरिक्त सवत् 1811 मे पूज्यवाद की सर्वार्थसिद्धि की भी प्रतिलिपि करवा कर शास्त्र भण्डार मे विराजमान की गयी । उस समय मुलतान मे संस्कृत के पाठक भी हो गये थे । सवत् 1811 मे ही तत्वार्थ सूत्र को आचार्य कनककीर्तिकी भाषा टीका की प्रति करवाकर शास्त्र भण्डार मे विराजमान की गई।
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मुलतान दिगम्बर जैन समाज इतिहास के आलोक में