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दिगम्बर जैन श्रावक थे तथा नवलखा इनका गौत्र था | सवत 1746 माघ सुदी पचमी के शुभ दिन इन्होने वर्धमान वचनिका की रचना की थी जिसकी प्रतिलिपि चैत्र सुदी 1 स० 1747 को विशालोपाध्याय गणि के शिष्य ज्ञानवर्धन मुनि द्वारा मुलतान नगर मे ही की गयी थो । ग्रन्थ की प्रशस्ति में सर्वप्रथम वनारसीदाम को धर्माचार्य एव धर्मं गुरु के नाम से सम्बोधित किया है जिनके प्रयास से इन्होने आचार्य कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र, एव प० राजमलजी का उल्लेख किया है और उनके ग्रन्थो की प्रशसा की है तथा इन आचार्यो की स्याद्ववादमय वचन मे श्रद्धा करने को कहा गया है । इसी तरह चतुविध सघ स्थापना मे दिगम्बर धर्म की प्रशंसा की है तथा उसे ही मोक्ष प्राप्ति का साधन बताया गया हे ।' सम्वत 1750 में मुलतान मे प० धर्मतिलक ने नाटक समयसार की स्वाध्याय के लिए प्रतिलिपि की थी। इसी पुस्तक के एक दूसरे उद्धरण से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वर्धमान नवलखा बनारसीदास का कट्टर भक्त हो गये थे जिन्होने भेद विज्ञान बतलाया था । उन्होने मुनि दयासागर की भी प्रशंसा की है तथा उन्हे सच्चा
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धरमाचारिज धर्मगुरु, श्री बनारसीदास । जासु प्रसादें में लहयो, आतम निज पदवास ॥11॥
बंदू हूँ श्री सिद्धगण, परमदेव उतकिष्ट । अरिहंत आदि ले धार गुरू, भविक मांहि ए शिष्ट ॥12॥
संबहू
के सिरताज ॥13॥
परम्परा ए ग्यान को, कुंदकुंद मुनिराज । अमृतचन्द्र राजमलजी, ग्रन्थ दिगम्बर के भले, भीष ( 1 ) सेताम्बर चाल । अनेकान्त समझे भला, सो ज्ञाता की चाल ॥4॥
स्याद्वाद जिनके वचन, जो जानै सो जान । निश्च व्यवहारी आत्मा, अनेकान्त परमान ॥5॥
अब चतुविध संघ स्थापना लिख्यते साध्वी 1 श्रावक 2 श्रविका 3, अंबरसहित जाणवा 1 जघन्ये
श्वेताम्वर होवे । श्वेताम्बर होवे ।
साध लज्या जीत न सके तिणवास्ते साधवी पण निस्संकिता अंगरै वास्ते उतकृष्टा मुनीस्वर 6 गुणठाणे आदि ले केवली भगवंत सीम दिगंबर परम दिगबर होवे । परम दिगबर छँ तिको मोक्षसाधनरो अंग छै । भावकर्म 1. द्रव्यकर्म 2 नोकर्म ३ री त्यागभावना भावै । मेष भाव जिसो हुवं । परम दिगम्बर मोक्ष सार्धं । दिगम्बर मुनीस्वर ओलखवारो लिंग जाणवौ । इतरी चौथे आरेरी बात लिखी है । जिआं मुनीस्वरांरा संघयण सबला हुता ताहिवै पाचमा आरारी लिख्यते । अर्थ कथानक पृष्ट 109
• मुलतान दिगम्बर जैन समाज - इतिहास के आलोक मे