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म. वी.
॥३६॥
संयोग से उत्पन्न, इष्टवियोगसे उत्पन्न, महानरोगसे उत्पन्न और निदानरूप इस तरह चार प्रकारका है । तिर्यचगतीका कारण है, खोटे अभिप्रायोंको उत्पन्न करनेवाला है | इस मुनीके चित्तमें चार प्रकारका रौद्रध्यानभी जगह नहीं पाता हुआ । जो रौद्रध्यान जीवहिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह रक्षामें आनंद माननेसे होता है और नरक गती में ले जानेवाला है | शुद्ध चित्तवाला वह मुनि आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान विचयरूप चार प्रकारके धर्म ध्यान चितवन करता हुआ । जो धर्मध्यान स्वर्गादि सुखके देनेवाला है ।
वह बुद्धिमान मुनि वनादिकमें पृथक्त्ववितर्क, एकत्ववितर्क, सूक्ष्यक्रियाप्रतिपत्ति व्युप| रतक्रियानिवृत्ति - इस तरह चारप्रकारके शुक्ल ध्यानका चितवन करता हुआ । जो शुक्लध्यान | सबसे महान है विकल्परहित है और साक्षात मोक्षका देनेवाला है । इसतरह वारह भेद रूप महान तप सब शक्तीसे वह मुनि आचरता हुआ, जो तप कर्मरूपी शत्रुओं के नाश करने में वज्र के समान है, संव सुखोंका मूल कारण है, केवल ज्ञानको उत्पन्न करानेवाला है और वांछित अर्थको सिद्ध करनेवाला है । कठिन तपके प्रभाव से इस मुनिके अनेक दिव्य ज्ञानादि महान ऋद्धिये प्रगट होगई, जो कि सुखकी खानि हैं ।
पु. भा.
अ. ६
वह मुनि सब प्राणियोंपर मित्रता रखताथा, और धर्मात्मा गुणी पुरुषोंको देखकर ॥३६॥ प्रसन्न होता हुआ उनका आदर करताथा, रोगी क्लेश पीडित जीवोंपर वह करुणा (दया)