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________________ अ म. वी. शरीर हमेशा अशुचि ( अशुद्धपने ) की खानि है और यह जीव स्वभावसे ही निर्मल है। पु. भा. | इसीलिये पापका कारण स्नान करना वृथा है । यदि मिथ्यातसे मैले प्राणी स्नान १५१॥ करनेसे शुद्ध होजावें तो शुद्धिके लिये मच्छी वगैरह जलजीवोंको नमस्कार करना चाहिये, S) उन पर करुणा दृष्टी नहीं रखनी चाहिये । S परंतु हे मित्र अहंत ही तीर्थ हैं उनके वचनरूपी अमृतहीसे पुरुपोंके अंदरके पापरूपी मैल दूर हो सकते हैं वे ही शुद्रिके करनेवाले हैं। इसप्रकार तीर्थादिके सूचक संवोधनेके वचनोंसे वह अहंदास हठसे उस विभकी तीर्थमूढता दूर करता हुआ। फिर वहां पर पंचाग्निके वीचमें बैठे o हुए तापसीको देखकर वह विप्र बोला कि ऐसे तपस्वी हमारे मतमें बहुत हैं। ऐसा सुनकर वह अहहास जैनी उसके घमंडको दूर करनेके लिये उस तापसीको अनेक कौलिक शास्त्रोंके वचनोंसे मदरहित करके उस ब्राह्मणसे साफ बोला कि हे भद्र ये खोटे तापसी तप क्या कर सकते हैं । किंतु इस पृथ्वीपर महान् देव अर्हत सर्वज्ञ हैं निथ गुरु ।। हैं और धर्म दयामयी ही ठीक है । जिनेन्द्रकर कहा गया सवका दीपक सत्य जैनशास्त्र ही है जैनमत ही वंदनीक है निष्पाप तप ही शरण है-ये ही सब उत्तम हैं । इन ॥१५॥ सवका निश्चयकर हे मित्र तू मिथ्यादर्शन मिथ्याधर्मरूपी कुमार्गको शत्रुके समान छोड़कर
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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