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________________ उन्नीसवां अधिकार ॥ १९ ॥ १४१॥ मोहनिद्राघहंतारं श्रीवीरं ज्ञानभास्करम् । दीपकं विश्वतत्त्वानां वंदे भव्याब्जबोधकम् ॥ १॥ भावार्थ-मोहरूपी नींदके नाश करनेवाले ज्ञान के सूर्य सव तत्वों के प्रकाशनेवाले और भव्य कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले ऐसे श्रीमहावीर स्वामीको मैं नमस्कार करता हूं ॥१॥ अथानंतर दिव्यवाणीके बंद होनेपर जीवोंका कोलाहल शांत होनेसे महा बुद्धिमान् । गुणी सौधर्म इंद्र अपनी सिद्धि के लिये भक्तिपूर्वक भगवान् महावीरकी स्तुति करने । लगा। कैसे हैं महावीर । जो तीन जगत्के भव्योंके बीचमें विराजमान हैं व सव सामाणियोंको सचेत करनेमें उद्यमी हैं। वह इंद्र ज्ञानियोंके उपकारकेलिये तथा दूसरी जगह भी धर्मोपदेश देनेको विहार करने के लिये जगत्में श्रेष्ठ और भव्योंको संवोधने । ( चेताने ) वाले गुणोंसे इस तरह स्तुति करता हुआ । हे देव । मैं अपने मन वचन कायकी शुद्रिके लिये ही अनंत गुणोंके समुद्र, तीन जगत्के स्वापियोंसे पूज्य आएकी ॥१४१॥ स्तुति करता हूं। क्योंकि आपकी स्तुति करनेवाले भन्योंके पापमल दूर होकर शुद्ध
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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