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________________ من | जो शरीरसे ममता छोड़कर तप धर्मको आचरण करते हैं, सब जीवोंको अपने समान जानकर कभी नहीं मारते हैं और अपने तथा परके आक्रंदन (चिल्लाके रोना) Kallदुःख शोक वगैरहको नहीं होने देते वे शुभकर्मके उदयसे सवरोगोंसे रहित निरोगी हुए। सुख पाते हैं। जो आभूषण वगैरसे शरीरको नहीं सजाते, तप नियम योगवगैरःसे कायको क्लेश देनेरूप व्रत करते हैं और परमभक्तिसे जिनेन्द्रदेव तथा योगियोंके चरण । कमलों की सेवा करते हैं वे शुभकर्मके फलसे दिव्य रूपवाले होते हैं । ह जो पशुसमान अज्ञानी शरीरको अपना मानकर साफ रखनेके लिये अच्छीतरह राधोते हैं और रागी होकर आभूषणोंसे सजाते हैं तथा शुभ होनेके लिये कुदेव कुगुरु ? कुधर्मको सेवन करते हैं वे अशुभ कर्मके उदयसे डरावने कुरूप ( बदसूरत ) होते हैं। जो जिनेंद्र देव जैन शास्त्र निर्ग्रथयोगियोंकी बहुत भक्ति करते हैं, तप धर्म व्रत नियमादिकोंको पालते हैं, शरीरसे ममता छोड़कर इंद्रियरूपी चोरोंको जीतते हैं वे सुभग कर्मके उदयसे लोकमें सबके नेत्रोंको प्यारे भाग्यशाली होते हैं। II मैल वगैरहसे लिपटे शरीरवाले मुनिको देखकर जो शठ रूपादिके घमंडसे घृणा है Hel करते हैं, पराई स्त्रीको चाहते हैं और अपने कुटुंबियोंसे झूठ बोलकर द्वेप करलेते हैं वे ॥१२७॥ दुर्भगनामकर्मके उदयसे सबसे निंदा किये गये दुर्भग ( दरिद्री) होते हैं । जो दूसरोंके ।
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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