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म. वी.
॥८६॥
दानमें उद्योग करता हुआ और उस दानसे होनेवाली रत्नदृष्टि कीर्ति आदिको त्यागता हुआ । सेवा आज्ञा आदिसे उस प्रभुकी भक्तिमें लगा हुआ वह महाराज धर्मसिद्धिके लिये अन्य सब कार्यों को छोड़ता हुआ । वह राजा ऐसा जानता हुआ कि यह प्रासुक आहार है यह दानका उत्तम समय है इस विधिसे दान देना चाहिये यह संयमी वहुत उपवासोंके क्लेश कैसे सहता होगा, इस प्रकार उत्तमा क्षमासे परम कृपाको धारण करनेवाला वह राजा ऐसा विचारता हुआ ।
पु. भा
अ. १३
इस प्रकार महान फलको करनेवाले उत्तम दाताके गुणोंको वह बुद्धिमान् राजा स्वीकार करता हुआ । फिर वह राजा हितके करनेवाले उत्तमपात्रको मन वचन कायकी शुद्धिसे विधिपूर्वक भक्तिसे खीरका भोजन देता हुआ। वह आहार प्रासुक स्वादिष्ट निर्दोष तपकी वृद्धि करनेवाला और भूखप्यासको शांत करनेवाला था । उस समय उस दानसे खुश हुए देव पुण्योदयसे राजाके आंगन में आकाशसे रत्नोंकी वर्षा करते हुए । अमूल्य रत्नोंकी मोटी धाराके साथ २ फूल और सुगंध जलकी भी वर्षा की। उसी समय आकाशमें दुंदुभी वाजका शब्द बहुत जोरसे हुआ ऐसा मालूम होने लगा मानों दाताके ॥८६॥ . महान पुण्य और यशको कह रहा हो ।