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जिनेश्वर भगवानको शिलापर बैठाते हुए। ऐसा जानकर हे भव्यो यदि तुम भी ऐसी संपदा व सुख चाहते हो तो सोलहकारण भावनाओंसे निर्मल पुण्यको उपार्जन करो क्योंकि पुण्य ही तीर्थकरादि संपदाका कारण है, पुण्यसे ही यह जगत पवित्र होजाता है। पुण्यके सिवाय दूसरा कोई सुखका देनेवाला नहीं है, पुण्यका मूल कारण व्रत हैं और प्राणियों को पुण्यसे ही अनेक गुणोंकी प्राप्ति होती है ।
इसप्रकार श्री सकलकीर्ति देव विरचित महापुराणमें अंतिमतीर्थकरका जन्म और सुमेरुपर्वतपर लाने आदिको कहनेवाला आठवां अधिकार पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥
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