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शोभ रही हो । उस समय दिकुमारी देवियां छत्र धुजा शृंगार कलसा सातिया चमर दर्पण ठौना इन आठ मंगलीक द्रव्योंको अपने हाथमें लेकर उस इंद्राणीके आगे चलती हुईं
उसके बाद वह इंद्राणी जगतको आनंद करनेवाले जिन देवको लाकर खुशीसे इंद्रके हाथ में सौंप देती हुई । उस जिनदेव के महान रूप सुंदरताको व कांति आदि लक्षणों को देखकर वह देवोंका स्वामी उस जिनदेवकी स्तुति प्रारंभ करता हुआ । हे देव तुम हमको परम आनंद करनेके लिये वालचंद्रमाकी तरह लोकमें सब पदार्थोंके दिखानेको उदयरूप हुए हौ || हे ज्ञानी तुम जगतके स्वामी इंद्र धरणेंद्र चक्रवर्तीके भी आप स्वामी हौ । और धर्मतीर्थ प्रवर्तक होनेसे ब्रह्मा भी तुम ही हो ॥
हे देव ! मुनीश्वर तुमको केवल ज्ञानरूपी सूर्यके उदयाचल मानते हैं, भव्यजी - वोंके रक्षक हौ और मोक्षरूपी श्रेष्ठस्त्रीके पति हौ || हे स्वामिन मिथ्याज्ञानरूपी अंधेकुए में पड़े हुए बहुत भव्यजीवोंको धर्मरूपी हाथका सहारा देनेसे आप उद्धार करेंगे अर्थात् उन्हें दुःखोंसे छुड़ाएंगे । इस संसार में विचारवान पुरुष आपकी दिव्यवाणी सुनकर मोह आदि दुष्ट कर्मोंका नाशकर परम पवित्रस्थान मोक्षको पाते हैं और कोई जीव स्वर्गको जाते हैं । हे देव आज तीन लोकमें आप तीर्थकरके उदय होनेसे संत पुरुषोंको बहुत आनंद हुआ है क्योंकि आप ही धर्मप्रवृतिके कारण हैं ।