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महावीरश्री का उपदेश
मानव वने महामानव, अव तीर्थंकर पद पाया था । मानवता उद्धार हेतु, तव यह सन्देश सुनाया था ।
अहिंसा
"स्वय जियो जीने दो सव को" इससे वढकर धर्म नही । स्वार्थ हेतु पर को दुख देने से बढकर दुष्कर्म नही || आओ० मद्य-मास अण्डा न कभी मानव भोजन हो सकता है । शुद्ध निरामिप भोजन से वढती सच्ची सात्विकता है ॥ पर दुख-सुख को अपना समझो, प्राणि-साम्य मन मे लाओ इन्द्रिय-विषय-वासना तज, सयम-मय जीवन अपनाओ ।। आओ० यज्ञ-हवन वलि-पूजन हित भी प्राणि सताना हिंसा है । झूठ वोल विश्वासघात कर, काम वनाना हिंसा है ॥ चोरी ठगी शक्ति से धन हर, हृदय दुखाना हिंसा है । कामुकता, अश्लील आचरण कलुप भावना हिंसा है || आओ०
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अपरिग्रह
संग्रह वृत्ति पाप है, इससे जनता वस्तु न पाती हैं । कमी, छिपाव, अभाव, मिलावट, आराजकता छाती है ।। स्वय वस्तुएँ परिमित रखकर ओरो को भी जाने दो । आवश्यक सामग्री पाकर, सवको काम चलाने दो || आओ ०
अनेकान्त
सभी वस्तुओं मे अनेक गुण, जग मे पाये जाते हैं । भिन्न दृष्टि कोणो से जन, उनको कहकर बतलाते है ॥ अत. पराये दृष्टि कोण पर, वन समुदार विचार करो । पक्षपात तज, अनेकान्त मय पूर्ण सत्य स्वीकार करो ॥