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है भव्य जीवो। मेरा सुद्र अतीत भी तुम्हारे मध्य बीडीयमान होकर
भव-भ्रमण के निविद तिमिर में अनत कल्पकालो में असहाय भटकता फिरा
किन्तु ज्यो ही मैने अपने स्वरूप का मान किया
स्वपर भेद विज्ञान किया आत्म-साधना का दृढ व्रत ठान लिया
त्यो ही चल पडासम्यक् रत्नत्रय के पथ पर मेरे जीवन का रथ
और जाकर रुका वहा
लोकान के शिखर पर जहा मेरी अन्तिम मजिल थी
सिद्ध-शिला
तो तुम भी आओ वही उसी पथ से मैं तुम्हारा प्रकाश स्तम्भ वन कर कव से
खडाहू परम-पुनीत पच्चीस वे शतक पर भाव-भीनी विनयाञ्जलि
अर्पयिता :बालचन्द श्री व्रती वाडमय संस्थान संचालक फूलचन्द बाबूलाल जैन वैद्य
खुरई (जिला सागर) म प्र