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ज्योतिषी का अन्तर्द्वन्द्व
(प्रस्तुत प्रसंग श्वेताम्बर आम्नायानुसार वर्णित)
तेजस्वी सम्राट् प्रतापी के ही चरण-चिन्ह है ये। क्योकि शास्त्र अनुसार जान से दिखते नहीं भिन्न है ये ।।
शायद पथ को भूल भटकता होगा वह इस जगल मे। अगर राह बतलादू मुझ को नव निधि मिले इसी पल मे ।।
इसी लोभवश पथ चिह्नो को देख-देख बढता जाता। एक जगह वह तरु से आगे कोई चिह्न नही पाता ।।
अतः वही पर रुक जाता है जहाँ वीर ध्यानस्थ खडे । आशा के विपरीत अकिंचन वस्त्र विहीन दिखाई पडे ।।
मेरा ज्योतिष ज्ञान गलत है अथवा झूठी पुस्तक है। अतः क्रोध से लगा फाडने वह सामुद्रिक पुष्पक है।
(६) किन्तु श्रमण के मुख-मडल से फूट रही थी जो किरणे । उनकी माभा से चट्टाने सोना-चादी लगी उगलने ।
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