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अनेकान्त-रहस्य
निज सत खडे राज-भवन की, चौथी मजिल के सुकक्ष में। बैठे सोच रहे थे सन्मति, अपेक्षाओ के न्याय पक्ष मे ॥ उसी भवन की पहली मजिल मे स्थित थी त्रिशला देवी। किन्तु सातवी पर पितु श्री थे, देव शास्त्र गुरु के पद सेवी ।। समवयस्क ने आकर तब ही पूंछा पूजनीय माता जी। वर्द्धमान है कहाँ अवस्थित ? ऊपर बोली श्री त्रिशला जी। बालक सत्वर चढा भवन की उसी सातवी मजिल ऊपर । पूछा नृप से हे जनकश्री । वर्द्धमान जी गये कहाँ पर ? || नीचे, उत्तर दिया उन्होने बालक अजमजस मे डोला। ऊपर नीचे की अपेक्षा समझ न पाया बालक भोला ।। ऊपर-नीचे, नीचे-ऊपर आते-जाते समवयस्क ने। खोज न पाया वर्द्धमान को उस निराश ने अनमनस्क ने ॥ किन्तु दूसरे दिन मिलने पर उसको सन्मति ने समझाया। ऊपर नीचे के आशय को भली भाँति मन मे बैठाया । माता जी की तो अपेक्षा मैं सचमुच ऊपर बैठा था। किन्तु तातश्री की अपेक्षा तो मैं नीचे ही ठहरा था। दोनो की वाणी सम्यक थी किन्तु न थी निरपेक्ष सर्वथा। अतः भ्रमित तुम हुये क्योकि मैं चौथी ही सजिल मे था। इस घटना ने आगे जाकर खोज निकाला स्याद्वाद को। अनेकान्त सापेक्षवाद ने दूर भगाया विसवाद को।
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