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एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक जीवो के
दुखों का वर्णन
(१) लट-चीटी-भंवरा विकलत्रय द्वय नय चतुरिन्द्रिय के जीव । चितामणि सम दुर्लभ है त्रस जिसमे रह दुख सहे अतीव ।।
(२) कुचले-पीसे गये प्रवाहित हुये अग्नि मे भस्मीभूत । खाये गये पक्षियो द्वारा सहे दु:ख मारीचि प्रभूत ॥
पचेन्द्रिय जब हुआ असनी हित अनहित का नहीं विवेक । ज्ञान अल्प था, मोह तीव्र था धर्महीन दुख सहे अनेक ॥
(४) सज्ञी पचेद्रिय पशु होकर लघु जीवो का किया शिकार। स्वय दीन कातर होने पर बना सशक्तो का आहार।।
छेदन-भेदन-क्षुधा-पिपासा की पीडाये क्या कहना? । सर्दी-गर्मी वोझा ढोना-बध-बन्धन परवश सहना ।।
पुण्य योग से नर भव पाया, किन्तु न पाई मानवता। इसीलिये दुख सहे अनेको गर्भ-जन्म एव शिशुता ॥
पृथ्वी जल की अग्नि वायु की वनस्पती की बादर काय । अपर्याप्त पर्याप्त रूप से धारी असख्यात पर्याय ॥
पृथ्वी कायिक मे भोगी उत्कृष्ट मायु बाईस हजार । जल कायिक मे भोगी थी उत्कृष्ट आयु पुनि सात हजार ।।
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