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१४ सुन कर यह कल्याणी-वाणी, भिल्लराज को जागा ज्ञान । तत्क्षण पाद मूल मे पहुँचा, फेंक वही पर तीर-कमान ॥
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मुनि श्री ने तव भव्य जान कर, उसको दिया धर्म-उपदेश । मद्य-मास-मधु-सुप्त व्यसन से, वर्जित श्रावक व्रत नि.शेष ।।
धारण कर सम्यक्त्व सहित, वह जप-तप-सयम अणुव्रतशीले ।। प्रथम स्वर्ग मे देव महद्धिक, हऔ समाधि-मरण सें भीले ॥
पुरुरवा प्रथम स्वर्ग में
महाकल्प नामक विमान मे, वह सौधर्म-स्वर्ग का देव । मान एक अन्तर्मुहुर्त मे, तरुण-किशोर हुआ स्वयमेव ।।
अवधिज्ञान से जान लिया निज, पूर्व-जन्म का सब वृत्तान्त ।' धर्म-ध्यान के पुण्य फलों पर, उसकी' श्रद्धा बढी नितान्त ।।
१६ अत सपरिकर चैत्य-वृक्ष पर, स्थित अरिहन्तो कों नित्य । भक्ति-भाव से पूजा करता, था ले अष्ट-द्रव्य साहित्य ।।
२० नन्दीश्वर या पचमेरु की, वन्दनाओं का लेकर लाभ । समवशरण में गणधर-बाणी, सुनता था वह सुर अमिताभ ॥