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श्लोक अर्थ जानने की इच्छा से उसके सामने रख दिया। वहुत प्रयत्न के पश्चात् जब उससे श्लोक का अर्थ नही निकला तव उसका अर्थ जानने की जिज्ञासा से इन्द्रभूति गौतम वृद्ध विप्र के पीछे हो लिया। जिस समय वृद्ध व्राह्मण के भेप मे इन्द्र समवशरण के समीप पहुँचा और पतित पावन जैन-धर्म से सदा विद्वेष करने वाले इन्द्रभूति गौतम ने महा मगलमय मानस्तभ देखा तो उसका मान चूर-चूर हो गया, वदला लेने की दुर्भावना भी गुम हो गई और उसके कुभावो मे परिवर्तन होने लगा जब वह भगवान महावीर स्वामी के अत्यन्त समीप पहुंचा तो उनके शरीर से निकलने वाली पुण्याभा को देखकर उसका सिर महावीरश्री के चरणों मे स्वयमेव झुक गया। उसी समय महावीरश्री का उपदेश प्रारम्भ हुआ। अर्थात वे विश्व कल्याण के विस्तीर्ण क्षेत्र मे उतरे । वीर प्रभु की दिव्यवाणी इन्ही गौतम गणधर द्वारा ग्रथित एवं व्याख्यायित हुई। महावीरश्री का पहला कदम (भाषा में क्रान्ति)
महावीरश्री ने अपने उपदेश 'अर्द्धमागधी' भाषा मे जो कि उस समय की राष्ट्र भाषा थी-दिये। भापा के सम्वन्ध मे यह जवरदस्त क्रान्ति थी। उस समय के भारत मे संस्कृत की दृढ किलेवन्दी को मिटाना कोई आसान कार्य न था। सस्कृत के वे विद्वान पडित-पुरोहित कि जिनके हाथो मे उस वक्त वेदो की सत्ता मौजूद थी-राष्ट्रभाषा बोलना बडा भारी पाप समझते थे। उस समय प्राकृत-भाषा जन-साधारण की भाषा से सस्कृत के पडितों को कितना द्वेष था, यह इसीसे जाना जा सकता है कि वे नाटको में प्राकृत भापा मात्र नीच पात्रो से बुलवाते थे परन्तु क्रान्ति के अग्रदूत महावीरश्री ने इसका क्रियात्मक विरोध किया-उन्होने बताया कि भापा अपने मानसिक विचारो को