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पर तक पहुंचे । स्वार्थ के संकीर्ण क्षेत्र को लांघ कर परार्थ के विस्तृत क्षेत्र को अपनाए । सतो के जीवन की यही साधना है । महापुरुष इसी जीवन पद्धति पर आगे बढते है | क्या महावीर क्या बुद्ध सभी इसी व्यामोह से परे हट कर आत्मजयी बने । जो जिस अनुपात मे इस अनासक्त भाव को आत्मसात् कर सकता है वह वह उसी अनुपात में लोक-सम्मान का अधिकारी होता है । आज के तथाकथित नेताओ के व्यक्तित्व का विश्लेषण इस कसौटी पर किया जा सकता है ।
अपने प्रति भी ममता न हो यह अपरिग्रह दर्शन का चरम लक्ष्य है | श्रमण संस्कृति मे इसीलिए शारीरिक कष्ट सहन और सल्लेखना व्रत को इतना महत्व दिया गया है । वैदिक संस्कृति मे समाधि या सत मत में सहजावस्था | इस अवस्था मे व्यक्ति स्व से आगे बढ कर इतना सूक्ष्म हो जाता है कि वह कुछ भी नही रहता । सक्षेप में महावीर की इस विचारधारा का अर्थ यही है कि हम अपने जीवन को इतना सयमित और तपोमय बनावे कि दूसरों का लेशमात्र भी शोषण न हो। साथ ही साथ हम अपने में इतनी शक्ति, पुरुषार्थ और समता अर्जित कर लें कि हमारा शोषण भी दूसरे म कर सकें ।
इस व्रत विधान को देख कर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भ० महावीर ने एक नवीन और आदर्श समाज रचना का मार्ग प्रस्तुत किया। जिसका आधार आध्यात्मिक जीवन जीना है । यह मार्क्स के समाजवादी लक्ष्य से भिन्न ईश्वर के एकाधिकार को समाप्त कर महावीर की विचार धारा ने उसे जनततीय पद्धति के अनुरूप विकेन्द्रित किया । जिस प्रकार राजनैतिक अधिकारो की प्राप्ति आज प्रत्येक नागरिक के लिए सुगम है उसी प्रकार ये आध्यात्मिक आधार भी उसे सहज ही प्राप्त हो गये । ⭑