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अधिकांश श्लोक शिखरिणीवृत्त में रचे गये हैं। कवि का वृत्त के सम्बन्ध में यह एक सर्वथा नवीन ही प्रयोग है। यह दूतकाव्य गुरूभक्ति पर आधारित है। इसमे भी शिष्य द्वारा गुरू के पास वन्दना एवं क्षमापना सन्देश ही भेजा गया
काव्य की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है कि मुनि विजयामृतसूरि जो कि आचार्य विजयनेमिसूरि के शिष्य है, वह अपने चर्तुमास काल को कपडवणज मे बिताता है। उसके गुरू विजयनेमिसूरि जामनगर में अवस्थित होकर अपना चतुर्मास बिताते है। चतुर्मास काल मे गुरू का समीप्य न प्राप्त कर तथा गुरू के प्रति अतीव श्रद्धा होने के कारण वह अपने आदरणीय गुरू के पास वन्दना एवं क्षमापन का सन्देश एक मयूर के द्वारा सम्प्रेषित करता है। यह स्वतन्त्र दूतकाव्य है। इसमे कालिदासीय मेघूदत से किसी प्रकार की सहायता नही ली गयी है। परन्तु काव्य मे नगर आदि के वर्णन मे कालिदासीय मेघदूत जैसा तारतम्य मिलता है। काव्य में श्री सूरीन्द्राः एवं सूरीश्वराः जैसे विशेषणों का प्रयोग है। काव्य में जैन धर्म का उल्लेख है, काव्य मे करूणा, अहिंसा आदि भावों पर जोर है। अतः इससे पता चलता है कि यह दूत काव्य जैन कवि द्वारा प्रणीत है।
हंसपादांकदूतम् -' इस दूतकाव्य के रचनाकार के विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। इस दूतकाव्य का उल्लेख जैन विद्वान श्री अगर चन्द्र नाहटा ने अपने एक लेख में किया है। यद्यपि इन्होंने इसके अस्तित्व में सन्देह प्रकट किया है। परन्तु विद्वद्रत्नमाला के उल्लेखानुसार इस काव्य को भी जैन संस्कृत दूतकाव्यों में सम्मिलित किया गया है।
विद्वद्रत्नमाला प्रेमी नाथु राम पृ. ४६