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तिरस्कार करता है और दुःशासन को उसके वस्त्र उतारने का आदेश देता है। इस असहाय अवस्था में द्रौपदी भगवान कृष्ण की याद करती है तथा किसी
और को समीप न पाकर मन को ही दूत बनाकर श्रीकृष्ण के पास द्वारका भेजती हैं। सम्पूर्ण काव्य मे कुल २०२ शिखरिणी छन्द है। छन्द की दृष्टि से दूत काव्य की परम्परा मे यह सर्वथा नवीन है। भाषा मे सर्वत्र प्रवाह पाया जाता है। रचना प्रसादगुण युक्त है। करूण रस प्रधान है। कवि ने यमक और अनुप्रास का बड़ा चमत्कार दिखाया है। कही-कही अलंकार के अभाव में भी लययुक्त मधुर शब्द विन्यास द्वारा कवि ने सुन्दरपद्यों की रचना की है यथा
विना दिव्योद्धारं भवजलधितारं व्रजवधू
हृदो हारं रूपद्रविणजितमारं नरवरम् ।। वातदूत :-' प्रस्तुत दूतकाव्य के रचयिता श्री कृष्णनाथ न्याय पञ्चानन है। वातदूत का समय वि. सं. १९२२ है। इस काव्य की कथा रामायण से सम्बद्ध है। रावण दण्डाकरण्य में पञ्चवटी से सीताजी को हर कर लंका ले जाता है। वहाँ अशोक वाटिका मे ठहरा देता है पतिवियोग मे सीताजी का हृदय व्याकुल रहता है। वसन्त ऋतु में शीतल वायु के सुखद स्पर्श से कुछ शान्ति का अनुभव करती है। अन्त मे वायु को दूत बनाकर उसके साथ श्री रामचन्द्र जी तथा लक्ष्मण जी के पास अपना विरह सन्देश भेजती हैं। मेघदूत से प्रेरणा पाकर यह दूत काव्य लिखा गया है। समग्र काव्य में १०० श्लोक है। जो मन्दाकान्ता छन्द में लिखे गये हैं। काव्य में विप्रलम्भ शृङ्गार रस होते हुए भी संयम से काम लिया गया है। भाषा की दृष्टि से काव्य कुछ दुरूह ही है। माधुर्य तथा प्रसाद गुण की काव्य में न्यूनता है और गौडी रीति का ही काव्य में अनुसरण किया गया है। उदाहरणार्थ- चञ्चच्चञ्च क्षत शत गलद्रक्त धाराकुलाङ्गः .....--तं संजिगाय।।
संस्कृत के सन्देश काव्य पृ. सं. ४५१-५२