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प्रस्तावना
जैन धर्मावलम्बी कविजनो ने अपनी काव्यरचना द्वारा संस्कृत-साहित्य के बहुमुखी विकास में अपना विशेष योगदान दिया है। सर्वप्रथम सामन्तभद्र ने संस्कृत-भाषा मे भक्ति रस से ओत-प्रोत स्रोतों की रचना कर संस्कृत काव्य का मङ्गलाचरण किया। तदन्तर अनेक जैनकवियो ने चरितकाव्यो, महाकाव्यो व दूतकाव्यों की रचना की यह एक अल्पज्ञात तथ्य है कि जैन धर्म के सिद्धान्तो को लेकर जैन कवियों ने संस्कृत में दूतकाव्यों की रचना की है। प्रायः कालिदास द्वारा विरचित मेघदूतम् का ही नाम अधिक प्रख्यात है। जैन कवियो ने मेघदूत के समानजैन मेघदूतम् , पवनदूतम् , शीलदूतम्
आदि अनेक दूतकाव्यो की रचना की है। जहां पवनदूतम् , शीलदूतम् पार्श्वभ्युदय आदि की रचना मेघदूतम् की समस्यापूर्ति के लिए की गई है वही
आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् की एक स्वतन्त्र काव्य के रूप में रचना की है। इसमे कवि ने विप्रलम्भ श्रङ्गार रस को प्रधान मानते हुए काव्य का पर्यवसान शान्त रस में किया है। जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष को आधार मानकर इस काव्य का प्रणयन किया गया है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का विषय 'आचार्य मेरुतुङ्ग कृत जैनमेघदूतम् का समीक्षात्मक अध्ययन'। इनमें जैनमेघदूतम् के विविध पक्षों पर गम्भीरता से विचार करने का प्रयास किया गया है। इस शोध-प्रबन्ध में आठ परिच्छेद है। ___प्रथम अध्याय दूतकाव्य की परम्परा से सम्बद्ध है। इसके अन्तर्गत 'दूत' शब्द की व्युत्पत्ति पर संस्कृत हिन्दी शब्दकोष, अभिधान चिन्तामणि, अग्निपुराण आदि ग्रन्थो के अनुसार कियाहै। दूत काव्यों के प्रारम्भिक स्रोत