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________________ 216 (९) प्रभावना - साधक को अपने सच्चे धर्म का प्रचार करना चाहिए। पाँच प्रकार की मिथ्यादृष्टि शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि, प्रशंसा तथा अन्यदृष्टि संस्तव से बचना चाहिए। श्री नेमि जैन धर्म के प्रचार के लिए जैन धर्म के सभी सिद्धान्तों का पालन करते है साथ ही पाँचो मिथ्या दृष्टि से बचने का प्रयास करते है। सम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यज्ञान और सम्यग्चरित्र के विषय मे संक्षेप मे उल्लेख करते है क्योकि इन तीनो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र का परस्पर घनिष्ट सम्बन्ध है। इन त्रिरत्नो द्वारा ही मनुष्य मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर सकता है। सम्यज्ञान' - सम्यज्ञान तथा सम्यग्चरित्र में घनिष्ठ संबध है। सम्यज्ञान की उत्पत्ति मिथ्यादृष्टि के समाप्ति से होती है। जीव तथा अजीव के मूल तत्वो का ज्ञानप्राप्त करना ही सम्यज्ञान है अर्थात जीव तथा अजीव का भेद करना सम्यग्ज्ञान' से संभव है। इसी कारण सम्यग्ज्ञान मोक्ष का साधन माना गया है। जैनमेघदूतम् के नायक श्री नेमि की मिथ्या दृष्टि समाप्त हो गई है। उन्हे जीव तथा अजीव के मूल तत्वो का ज्ञान है। तभी तो वे मोह उत्पन्न होने वाले कर्मो के बंधन में बँधना ही नहीं चाहते है। सम्यक्चरित्र - चरित्र के दो अंश है प्रवृत्तिमूलक तथा निवृत्तिमूलक प्रवृत्तिमूलक चरित्र बंधन का कारण है तथा निवृत्तिमूलक चरित्र मोक्ष का कारण है। प्रवृत्तिमूलक विहित कर्मों का वर्जन तथा निवृत्तिमूल विहित कार्यों का आचरण ही सम्यक चरित्र है। संक्षेप में सम्यक्चरित्र उसको कहते है जो भारतीय दर्शन - डा. बी. एन. सिंह - डा. आशा सिंह स्वपरान्तरं जानाति यः स जानाति इष्टोपदेश ३३
SR No.010397
Book TitleJain Meghdutam ka Samikshatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Dwivedi
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages247
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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