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शैली जैनमेघदूतम् की शैली की समालोचना से पूर्व शैली की प्रमुख घटक तत्त्वो की परिचयात्मक व्याख्या आवश्यक है। शैली के प्रमुख घटक तत्त्वगुण, रीति, अलंकार योजना, छन्द आदि है।
इस प्रसंग मे सर्वप्रथम काव्यशास्त्रीय दृष्टि से गुण निरूपण किया जा रहा है -
गुणनिरूपण वामन आदि आचार्यो के अनुसार 'काव्य के शोभा जनक धर्मों को गुण कहते है 'काव्यशोभायाः कत्तारो धर्मा गुणः'। गुण रस के धर्म है- यह सिद्धान्त ध्वनि दार्शनिको का एक परिनिष्ठित काव्य सिद्धान्त है। आचार्य आनन्दवर्धन ने स्पष्ट कहा है
"तमर्थमवलम्बन्ते येऽङ्गिनं ते गुणाः स्मृताः। अङ्गाश्रितास्त्वलंकारा मन्तव्याः कटकादिवत् ।।" ।
ये तमर्थ रसादिलक्षणमङ्गिनं सन्तमवलम्बन्ते ते गुणाः शौर्यादिवत् वाच्यवाचकलक्षणान्यङ्गानि ये पुनस्तदाश्रितास्तेऽलङ्कारा मन्तव्याः कटकादिवत।'
आचार्य मम्मट ने भी गुणों को रस धर्म बतलाया है। इसी के आधार पर वे गुणो के तीन भेद स्वीकार करते है:- माधुर्य, ओज, और प्रसाद।' यद्यपि भरतमुनि के नाट्यशास्त्र के सत्रहवें अध्याय में दस गुणों का विवरण मिलता है:
काव्यप्रकाश ८/पृ. सं. ४१४ ध्वन्यालोक द्वितीय उद्योत माधुरौजा प्रसादाख्यास्त्रयस्ते न पुनर्दश (काव्य प्रकाश ८/६८ पृ. सं. ४/१६)