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अर्थात् सखियो की इसप्रकार की वचन रचना को सुनकर राजीमती पति का ध्यान करती हुई तन्मय हो गई। इसके बाद केवल ज्ञान कोप्राप्त भगवान नेमि के समीप जाकर दीक्षा ग्रहण कर पति के ध्यान में लीन होकर स्वामी की तरह ही रागद्वेष आदि से युक्त होकर कुछ ही दिनों में वह परमानन्द के सर्वस्व मोक्ष कोप्राप्त कर अनुपम तथा अनन्त सुख को प्राप्त करती है।
जैनमेघदतम् में भी शान्तरस के प्रयोग में शम नामक स्थायी भाव है, इस रस का आश्रय राजीमती एवं २२वें तीर्थकर श्री नेमिनाथ हैं पशु हिंसा आदि के कारण उत्पन्न दुःख से संसार के प्रति निःसारता ही आलम्बन विभाव है और उद्दीपन विभाव पवित्र रैवतक पर्वत है, व्यभिचारीभाव निर्वेद, जीवदया आदि है।
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इस प्रकार शृङ्गार रस का पर्यवसान तो शान्त रस में होता है परन्तु इसे हम इस काव्य का अङ्गी रस का रूप नहीं दे सके काव्य का अङ्गीरस विप्रलम्भ शृङ्गार रस है।
इन दोनों रसों के अतिरिक्त कवि ने काव्य के द्वितीय सर्ग में श्रीकृष्ण और श्री नेमि की भुजबल की परीक्षा मे वीर रस का भी प्रयोग किया है। श्री नेमि के वाम हस्त से स्पर्श करते ही श्रीकृष्ण की सृदृढ़ की हुई भुजलता कन्धे तक स्वयं झुक जाती है -
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हस्ते सव्ये स्पृशति किमपि स्वामिनोऽनेकपस्या ।
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नंस्तास्कन्धं हरिभुजलता सा स्वयं स्तब्धितापि । । '
जैनमेघदूतम् ४/४२ जैनमेघदूतम् २/४४