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कहे यह ग्लान लग रहा है तो पूछा जाता है- ऐसा क्यो? ग्लानि के हेतु का यह प्रश्न इस बात का प्रमाण है 'ग्लानि' अस्थिर' मनो भाव हैं किन्तु 'राम उत्साह की शक्ति से भरपूर है' ऐसा कहने पर कोई नहीं पूंछता ऐसा क्यो? इससे स्पष्ट है कि 'उत्साह' एक स्थिर मनोभाव है।
दशरूपककार व्यभिचारीभाव का लक्षण निम्न प्रकार से देते हैं - "विशेषादाभिमुख्येम चरन्ती व्यभिचारिणः। स्थायिन्युन्मग्ननिर्मग्नाः कल्लोला इव वारिधौ।।'
अर्थात् विविध प्रकार से अभिमुख चलने वाले भाव व्यभिचारी भाव कहलाते है, जो स्थायी भाव से इसी प्रकार प्रकट होकर विलीन होते रहते है, जिस प्रकार सागर में तरङ्गे।
भरत के नाट्यशास्त्र में व्यभिचारी भाव की यह व्युत्पत्ति दी गयी है - "विविधमाभिमुख्येन रसेषु चरन्तीति व्यभिचारिणः।'
आचार्य विश्वनाथ ने भी व्यभिचारीभाव के ३३ भेदों का उल्लेख किया है - (१) निर्वेद (२) आवेग (३) दैन्य (४) श्रम (५) मद (६) जड़ता (७)
औय्य (८) मोह (९) विबोध (१०) स्वप्न (११) अपस्मार (१२) गर्व (१३) मरण (१४) अलसता (१५) अमर्ष (१६) निद्रा (१७) अवहित्था (१८) औत्सुक्य (१९) उन्माद (२०) शङ्का (२१) स्मृति (२२) मति (२३) व्याधि (२४) त्रास (२५) लज्जा (२६) हर्ष (२७) असूया (२८) विषाद
दशरूपकम् ४/७ पृ. सं. २६७
नाट्यशास्त्र सप्तम अध्याय