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वानरोऽहं महाभागे दूतो रामस्य धीमतः। रामनामकिंत चेदं पश्य देव्यगुलीयकम् प्रत्ययार्थं तवानीतं तेन दत्तं महात्मना
समाश्वसिहि भद्रं ते क्षीणदुःखफला ह्यसि।। अन्म मे सीता जी हनुमान को श्री राम जी को दूत मान लेती है:
एवं विश्वासिता सीता हेतुभिः शोककर्षिता।
उपपन्नैरभिज्ञानैर्दूतं तमधिगच्छति ।।' सीता जी द्वारा वापस चलने के लिए प्रस्तुत न होने पर हनुमान जी उनसे कुछ अभिज्ञान मॉगते है। सीता जी अभिज्ञानार्थ चूड़ामणि देती है और अपना सन्देश भी भिजवाती हैं।
इस प्रकार वाल्मीकि रामायण में दूत द्वारा सन्देश प्रेषण मार्ग वर्णन तथा अभिज्ञान स्वरूप किसी वस्तु का देना किसी घटना का उल्लेख करना यह बात पाई जाती है। इन सभी बातो का पूरा-पूरा सामञ्जस्य कालिदास जी के मेघदूत में भी मिलता है।
रामायण के बाद महाभारत में भी दूत प्रेषण का वृतान्त कई प्रसंगों मे देखने में आता है। युधिष्ठिर श्रीकृष्ण को हस्तिनापुर में कौरवराज दुर्योधन की सभा में दूत रूप में भेजते हैं। इस दूत सम्प्रेषण में विशुद्ध राजनैतिक भाव दृष्टिगत होता है, परन्तु महाभारत में वनपर्व के नलोपाख्यान मे आये हुए हंस दमयन्ती संवाद को तो निश्चित रूप से ही सन्देश काव्यों का पथ प्रवर्तक मानना पड़ेगा। हंस-दमयन्ती सम्वाद में हंस द्वारा नल और दमयन्ती एक दूसरे के लावण्य की, गुण की, योग्यता की निरन्तर चर्चा सुनते रहने से नल
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वही ३५/८४
सुन्दरकाण्ड ४