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आचार्य विश्वनाथ के अनुसार रौद्ररस वह रस है जिसका स्थायी भाव क्रोध हुआ करता है। इसका वर्ण रक्त है और इसके देवता रूद्र है। इसमे आलम्बन से शत्रु का वर्णन किया जाया करता है, और शत्रु की चेष्टाएँ उद्दीपन विभाव का काम करती है। इसकी विशेष उद्दीप्ति मुष्टिप्रहार, भूपातन, भयंकर काटमार, शरीर विदारण संग्राम और संभ्रम आदि से हुआ करती है। इसके अनुभाव है भ्रूभङ्ग, ओष्ठनिदर्शन, बाहुस्फोटन, तर्जन स्वीकृत वीरकर्मवर्णन, शस्त्रोत्क्षेपण, उग्रता, आवेग, रोमाञ्च, स्वेद कम्प, मद, आक्षेप, क्रूरदृष्टि आदि। इसके व्यभिचारीभावों में मोह अमर्ष आदि का स्थान
(६) करुण रस - करुण रस का परिचय देते हुए शारदातनय का कथन है कि जब रूक्ष गुण युक्त विभाव अन्य सहयोगी भावों के साथ शोक नामक स्थायीभाव मे विद्यमान रहते हैं, तब स्वानुरूप अभिनय के सहयोग से चित्तावस्था तमोरूढ जड़ात्मक मन जिस विकार की आस्वाद्य स्थिति का अनुभव करता है उसे करुण रस कहा जाता है।
शारदातनय ने करुण रस की उत्पत्ति पर विचार किया है। तदनुसार यह एक अप्रधान रस है जिसकी स्थिति रौद्ररस पर निर्भर है क्यो कि इसकी उत्पत्ति रौद्र से ही होती है। दोनो में अन्तर केवल यही है कि रौद्र में रजोगुण तथा अहंकार की स्थिति विद्यमान रहती है, किन्तु करुण में इन दोनों ही स्थितियो का अभाव रहता है। व्यासोक्त मार्ग से भी करुण रस की उत्पत्ति पर प्रकाश डाला गया है इसके अनुसार वीरभद्र द्वारा यज्ञविध्वंस की स्थिति में देवताओ पर जो विकट प्रहार किया गया उससे रुदन, क्रन्दन की ध्वनि व्याप्त हो उठी, इसी ने सखियों के साथ-साथ पार्वती के मन में करुण भाव
साहित्यदर्पण