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________________ श्री राजीमती सज्झाय ५१५ ' छठे आरे मानवी, विलवासी' सहु कोय । वीस वरस नो आउखो, पट वर्षे गर्भ होय ॥२०॥ वरस सहस्र चोरासी पणइ, भोगवस्ये भव कर्म । तीर्थकर होस्य भलो, श्रेणिक जीव शुभ धर्म ॥२१॥ तस गणधर अति सुंदरु, कुमरपाल भूपाल । आगम वाणी जोय ने, रचीया वयण रसाल ॥२२॥ पांचमा आरा ना भाव ए, आगम भाख्या वीर । ग्रंथ वोल विचार कह्या, सांभलज्यो भवि धीर ॥२३॥ भणतां समकित संपले, सुणतां मंगलमाल । जिनहरपे करि' देखीयो, भाख्या ययण रसाल २४॥+ श्री राजीमती सज्झाय ढाल-केसर वरणो हो काढ कसुवो माहरा लाल ॥ काइ रीसाणा हो नेम नगीना, माहरा लाल, तुं पर वारी हो वुद्ध लीना मा० * विरह विछोही हो ऊभी छोड़ी मा० . प्रीति पुराणी हो के ते तो तोड़ी ।मा०१॥ १ कही जोड़ ए। ___ + सज्झायमालादि में इसकी २१ गाथाएँ छपी हैं । पद्याक ६-७ नहीं है। .
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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