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लिनहर्प ग्रंथावली ग्रह माती राती थकी रे, सुरत सरसं उन्माद रे ॥५६॥ . रोवे विरहाकुल थकी रे, दाधी दुख दव झाल रे । दीणे हीणे बोलडे रे, काम जगावे वाल रे ॥५॥ काम वधै हड़हड़ हंसे रे, प्रीय मेटो तनताप रे वात करे तन मन हरै रे, विरहण करै विलाप रे ॥५८|| राग वधै सुण उल्लसै रे, हासे अनरथ होय रे ।। राम घरण हासा थकी रे, रावण वध थयो जोय रे ॥५६॥ व्रतधारी नव सांभले रे, एहवी विरही वाण रे। कहै जिनहर्ष थिर मन टलै रे, चित चले सुणि वैण रे ॥६०॥
दूहा छठी वाडै इस कह्यो, चंचल मन म डिगाय । खाधो पीधो विलसीयो, तिण सुचित्त म लाय ॥६॥ काम भोग सुख पारख्या, आपे नरग निगोद । परतिख नो कहिवो किस, चिलसे जेह विनोद ॥२॥
___ढाल ॥ आज नहेजो दी • . भर यौवन धन सामग्री लही, पामी अनुपम भोगो जी। पांच इन्द्री ने वस भोगव्या, पांमे भोग संयोगो जी॥६॥ ते चीतारे ब्रह्मचारी नहीं, धुर भोगवियां सुखो जी । आसी विस साल समोपमा, चीतास्यां चै दुखो जी ॥६४॥ सेठ माकंदी अंगज जाणीये, जिनरक्षत इण नामो जी । जक्ष तणी सीख्या सहु वीसरी, व्यामोहीतवस कामोजी ॥६॥