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जिनहर्ष ग्रन्थावली
ढाल २ धन-धन संप्रति साचार राजा ॥ एहनी जोवउ करमतणी गति केहवी, करम सवल जग माहिरे । सुखीया-दुखीया थाये प्राणी,ते सहु करम पसाइ रे ।। ७ जो ॥ पल्लीपति परलोक सिधायउ, चतुर चिलातीपुत्र रे। पांचसइ चोर तणउ स्वामी, चोरीकरे असत्र रे ॥ ८ जो ।। वाट पाड़इ बहु नगर उजाड़इ, मारे माणस वृन्द रे । लूटइ साथ हाथ नवि आवे, एहवर दासी नंद रे ॥ ६ जो ॥ एक दिवस बहु चोर संघाते, आन्यउ राजगृह तेह रे । धन सारथवाह ने परिपाठउ, न गण्यउ पूरव नेह रे ॥१०जो।। चोरे शेठ तणु धन लीधउ, कन्या लीधी तेणि रे । नीकलीयो लेइ पुर वाहिरि, बाहर थई ततखेण रे॥११जो।। नाठा चोर सहु धन नासी, तिणि पापी अपवित्र रे । कन्या सिर छेदी कर लेई, नाठु चिलातीपुत्र रे ॥१२जो।।
ढाल ३ ॥ हो मतवाल्हे साजना ॥ एहनी आगलि दीठउ मुनिवरु, प्रतिमाधर वर निरमोहीरे । काया नी ममता तजी, अंतरगत समता सोही रे ॥१३आ॥ परिग्रह जिणि पासइ नहीं, मुख मून दिगंवर धारी रे।। समिति गुपति सूधी धरइ, बहु लवधिवंत उपगारी रे॥१४आ।। देखी मुनि नइ पूछीयउ, कहउ धरम रिसीसरराया रे । उपसम विवेक संवर कबउ, ए धरम तणा छे पाया रे ॥१५आ।